खिड़की पहले भी खोलता था,
अब रोशनी छन कर नहीं आती।
कभी तन्हा सा ठंडा नहीं था,
बेचैन हो गया हैं कमरा ये।
पता नहीं कहाँ चली गई
गंद तो तुम्हारी छोड़ जाती।
पता नहीं था बिस्तर की
दो साइड होती हैं,
जाने के बाद मैं
तुम्हारी साइड पर सोता हूँ।
देखा तुमने आज,
मौसम कितना बदला हुआ हैं,
तुम्हारे सूट के रंगों जैसा
शाम से खिला खिला सा हैं।
शाम की लाली सा रंगा
जो झुमका तुमने पहना हैं,
लगता हैं आसमाँ से
सूरज उतार लाये हो तुम।
इतने दिनों में तुमने हर बार
आईने के सामने आ कर पूछा हैं,
“कैसी लग रही हूँ मैं?”
इस शाम इशारों में भी नहीं पूछा।
सुनो,
सच कहूँ नज़र न हटा सका,
इतनी हसीन तुम हो।
अगली बार पूछ भी लेना।
सुबह की मुलाकात शाम से बाकी हैं,
बहुत कुछ अब भी मुझमें बाकी हैं।
ख़्याल रखना अपना शहर की भीड़ में,
ये ख्याल रोज़ तन्हाई में बेबाकी हैं।
मिले वो इस शाम फिर वहीं राह पर,
उस को छुपे रहने में क्या आसानी हैं।
वो जो आए तो बताए तबीयत मेरी ही,
ये तबीयत उसके छुअन की हवसनाकी हैं।
उसको मालूम हैं दस्तूर–ए–गुलफाम,
कैनवास के रंगों में एक खूबसूरत दिशा बाकी है।
She gives me stares,
I pick up the Pen,
She gives me emotions,
I pick up the Words,
And that’s how
She makes me Write.
Word for Word,
Love for Love.
She knows it well,
Reason for the Pen.
She keeps on a Smile,
I pick up her tears.
And that’s how
She hates me Write.
Word for Word,
Love for Love.
तो हुआ यूँ उस दोपहर में,
धूप उस बेदर्द की हुई, और
छाँव मेरे पाले आ गिरी।
सर्द दिसंबर का महीना रहा,
और बनिया मैं भी पक्का,
गया था हिसाब की ओर से।
पूछ लिया खाता खोल कर,
धूप छांव की बैलेंस शीट का सवाल,
वो भी मुस्कुरा दी हल्के से।
बैठा कर अपने बिछौने पर,
कैद किया अपने बॉसा में
कह कर, वो कैमिस्ट्री की ओर से है।
खाते भी क्या सँभालते,
सर्द दोपहर पसीने में भीग गए,
विज्ञान का ही सारा गणित हो गया।
अब और नहीं होता ऐतबार मुझसे,
अब और नहीं तमन्ना किसी से इश्क़ की।
फिर वही खूबसूरत सुबह,
फिर वही थकी हारी शाम,
फिर किस किस को बताऊं,
फिर ये दोहराया नहीं जाता।
अब क्या क्या बताएं,
क्या क्या ना बताएं,
उन को हर चोट दिखाऊं,
उन को हर हर्फ से मिलाऊं।
फिर वो एक हिस्सा बने मेरा,
फिर वो एक हिस्सा ले जाए मेरा,
फिर एक तर्फा हो जाऊ मैं,
फिर अजनबी उनको हो जाऊ मैं।
अब और नहीं होता ऐतबार मुझसे,
अब और नहीं तमन्ना किसी से इश्क़ की।
तुम साथ अपने सब ले गए,
हाथ की घड़ी, वो गले की चैन,
दो वक़्त मुलाकात, बेचैन मन,
बातें भी थी कुछ एक आद दफ़्तर की,
पर्दे भी थे, जो सी दिए थे तुमने,
एक कप चाय और दो मिनट मैगी,
ये सब तो ले ही गए तुम साथ,
सिलवटें रह गई जाते जाते,
सिगरेट का धुंआ, और कुछ यादें,
ये समेटना रह गया था,
फिर आना तुम, घर को मेरे,
इस बार थोड़ा रुक ही जाना।
न पूछ ज़ायका मह का इस शहर में,
जहराब पीते रहे तुझे देखते देखते हम।
जाम ख़त्म हो गया लेकिन कैसे,
सहरा–ए– ज़िन्दगी में अकेले हैं हम।
फ़ुरसत से तन्हा दिखते हैं सब यहां,
ख़्यालों के सोहराब में तेरे हैं हम।
मिलती हैं बे–लौस तन्हाई मय–कदे में,
मरासिम बढ़ाए तो बढ़ाए किस्से हम।
न पूछ ज़ायका मह का इस शहर में,
शर्ब पीते रहे तुझे देखते देखते हम।
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i am out with lanterns, looking for myself
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Woh kare baat toh har lafz se khushboo aaye, Aisi boli wohi bole jise Urdu aaye. -Poet Ahmed Wasi-
You'll get to taste both!
Kaanta chubtaa bhi toh kya karein gulab toh pakadna hi hei 🌹
Witness What Happens When A Ghalib Loving Psychologist Who Doubles As A Hindi Kaviyatri And Raconteur Sits Down Over A Cup Of Coffee And Coelho By Her Side To Converse About Art, Love, Faith, Philosophy And The Journey Called Life! You're Invited!
खिली धूप का ध्यान करूँ की निहारु रूप सिकुड़ते सरोज में/ भटक गया हूँ शायद अपनी ही खोज में
Love, Life and musings!
making sand prints!!!
Raj Krishna
She was devoted to the moon. It’s its darkness she found comfort. In its light, she found hope.
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me and everything under the sun