Poetry

कमरा

खिड़की पहले भी खोलता था,
अब रोशनी छन कर नहीं आती।

कभी तन्हा सा ठंडा नहीं था,
बेचैन हो गया हैं कमरा ये।

पता नहीं कहाँ चली गई
गंद तो तुम्हारी छोड़ जाती।

पता नहीं था बिस्तर की
दो साइड होती हैं,
जाने के बाद मैं
तुम्हारी साइड पर सोता हूँ।

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Poetry

बहुत कुछ बाकी हैं।

सुबह की मुलाकात शाम से बाकी हैं,
बहुत कुछ अब भी मुझमें बाकी हैं।

ख़्याल रखना अपना शहर की भीड़ में,
ये ख्याल रोज़ तन्हाई में बेबाकी हैं।

मिले वो इस शाम फिर वहीं राह पर,
उस को छुपे रहने में क्या आसानी हैं।

वो जो आए तो बताए तबीयत मेरी ही,
ये तबीयत उसके छुअन की हवसनाकी हैं।

उसको मालूम हैं दस्तूर–ए–गुलफाम,
कैनवास के रंगों में एक खूबसूरत दिशा बाकी है।

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