Poetry

कमरा

खिड़की पहले भी खोलता था,
अब रोशनी छन कर नहीं आती।

कभी तन्हा सा ठंडा नहीं था,
बेचैन हो गया हैं कमरा ये।

पता नहीं कहाँ चली गई
गंद तो तुम्हारी छोड़ जाती।

पता नहीं था बिस्तर की
दो साइड होती हैं,
जाने के बाद मैं
तुम्हारी साइड पर सोता हूँ।

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विज्ञान का गणित

तो हुआ यूँ उस दोपहर में,
धूप उस बेदर्द की हुई, और
छाँव मेरे पाले आ गिरी।

सर्द दिसंबर का महीना रहा,
और बनिया मैं भी पक्का,
गया था हिसाब की ओर से।

पूछ लिया खाता खोल कर,
धूप छांव की बैलेंस शीट का सवाल,
वो भी मुस्कुरा दी हल्के से।

बैठा कर अपने बिछौने पर,
कैद किया अपने बॉसा में
कह कर, वो कैमिस्ट्री की ओर से है।

खाते भी क्या सँभालते,
सर्द दोपहर पसीने में भीग गए,
विज्ञान का ही सारा गणित हो गया।

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दोहराना

अब और नहीं होता ऐतबार मुझसे,
अब और नहीं तमन्ना किसी से इश्क़ की।

फिर वही खूबसूरत सुबह,
फिर वही थकी हारी शाम,
फिर किस किस को बताऊं,
फिर ये दोहराया नहीं जाता।

अब क्या क्या बताएं,
क्या क्या ना बताएं,
उन को हर चोट दिखाऊं,
उन को हर हर्फ से मिलाऊं।

फिर वो एक हिस्सा बने मेरा,
फिर वो एक हिस्सा ले जाए मेरा,
फिर एक तर्फा हो जाऊ मैं,
फिर अजनबी उनको हो जाऊ मैं।

अब और नहीं होता ऐतबार मुझसे,
अब और नहीं तमन्ना किसी से इश्क़ की।

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गांव से शहर

साड़ी नारंगी थी उस शाम
हल्के काले रंग के बॉर्डर वाली,
चांद सूरज कानों के झुमके थे,
और तुम भी हस्ते नाचते
नंगे पांव किनारे पर
कह रही थी,
“मैं बदल रही हूं।”

देखो तो,
आज गांव से शहर हो गई हो,
दोपहर की गर्मी, काले पॉल्यूशन की,
तुम क्यों बदल गई हो।

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Poetry

कोई आने को हैं।

कुछ बातें भिजवा दो,
कोई ख़्वाब नया आने को हैं।

मुलाकातों के दिन गुजर गए,
कुछ इत्तेफ़ाक़ भिजवा दो,
कोई अफसाना नया होने को हैं।

रात हैं इंतज़ार में तरस रही,
कुछ तन्हाई मिटा दो,
कोई याद अपना आने को हैं।

जाम खाली रखे हैं,
कुछ बातें भिजवा दो,
कोई ख़्याल आने को हैं।

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बॉसा

नशा हैं ये,
अलग और पूरा,
आंखों की पुतलियों
में जैसे सब सितारें
चमचमा जाते हो।
और वो मध्धम सा सुर,
धड़कनों को महसूस होता है।
जिस्म का हर कण
दो से एक स्वर में समा जाता है।
सांसें हम तुम की
साथ हर लह पर मचलती हो।
ऐसा होता है बॉसा,
जिससे तुम चाहते हो।

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जनता

शोर ना करो,
अरे कोई चिल्लाओ नहीं,
शांत हो जाइए,

वो अभी सो रहे हैं,
आंखें मूंदे सपनों में,
वादों में मेरे।

एक पुल ही तो गिरा हैं,
कोई आफत नहीं आयी,
कुछ घायल,
एक–आद ही तो मरा हैं।

तस्वीरों पर ध्यान ना दो,
लिए माइक हाथ में,
सवाल पूछ लेने दो,
पर मैं जांच बिठा दूंगा।

अब तक नहीं पता चला,
कल भी नहीं पता चलेगा,
हम दो और वादे करेंगे,
वो फिर सो जाएंगे।

श्ह, चुप हो जाओ सब,
कोई शोर ना करे,
वो सब सो रहे हैं।

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Life, Poetry

एक रात का मीट

फिर इस रात हफ़्तों बाद मीट बना हैं,
अदरक प्याज़ का बेहतरीन तड़के से।

पर नहीं, मुझे नहीं खानी ये बोटी,
ऐसा नहीं के मुझे पसंद नहीं,
लेकिन प्लेट में जब माँ परोसती हैं,
लंबी अटकी परेशानियाँ याद आ जाती हैं।

बैग की टूटी हुई स्ट्रैप हैं,
बाज़ार में भीड़ भी बहुत हैं,
चार किलोमीटर के चार रुपए बचाये हैं,
और दफ़्तर का काम अलग हैं।

झुर्रियों में फैली ज़िन्दगी हैं,
फिक्र मंद हैं उनकी तबियत,
लेकिन आज फिर माँ ने मीट बनाया हैं,
नहीं, ये परेशानी के मसाले में बना
एक दिन का मीट मुझे पसंद नहीं।

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