Poetry

कमरा

खिड़की पहले भी खोलता था,
अब रोशनी छन कर नहीं आती।

कभी तन्हा सा ठंडा नहीं था,
बेचैन हो गया हैं कमरा ये।

पता नहीं कहाँ चली गई
गंद तो तुम्हारी छोड़ जाती।

पता नहीं था बिस्तर की
दो साइड होती हैं,
जाने के बाद मैं
तुम्हारी साइड पर सोता हूँ।

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जनता

शोर ना करो,
अरे कोई चिल्लाओ नहीं,
शांत हो जाइए,

वो अभी सो रहे हैं,
आंखें मूंदे सपनों में,
वादों में मेरे।

एक पुल ही तो गिरा हैं,
कोई आफत नहीं आयी,
कुछ घायल,
एक–आद ही तो मरा हैं।

तस्वीरों पर ध्यान ना दो,
लिए माइक हाथ में,
सवाल पूछ लेने दो,
पर मैं जांच बिठा दूंगा।

अब तक नहीं पता चला,
कल भी नहीं पता चलेगा,
हम दो और वादे करेंगे,
वो फिर सो जाएंगे।

श्ह, चुप हो जाओ सब,
कोई शोर ना करे,
वो सब सो रहे हैं।

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इश्क़ की इबादत

इसे रहने दो वैसा ही,
जैसा सहर की पहली छाओं,
जैसे चाँद की जलती लौ।

इश्तेहार में चुटकी लेती
नए शहर की बेबसी,
कुचों में इमारतों से झाँकती
बादलों की महकती तस्वीरें।
इसे रहने दो ऐसा ही।

इश्क़ को ऐसा इबादत ही रहने दो,
मज़हब हुआ तो बिक जाएगा।

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